Monday 23 January 2012

NEW BUDDHISM means NAVAYAN--1956

नवायान 
' नवायान ' इस  शब्द का विश्व में १३ अक्टोबर १९५६ को नागपुर की धरती पर पहली बार उच्चारण किया गया. और उन्होंने आगे कहा -- ' नवायान यह हीनयान नहीं और महायान नहीं .' और उसके दो महीने के  बाद उस महामानव भारतरत्न बाबासाहेब आंबेडकर (father of Indian Constitution) का  महापरिनिर्वाण 
६ दिसम्बर १९५६ को दिल्ली में हो गया. 
नवायान क्या है, उसकी व्याख्या क्या है , उसका तत्वज्ञान क्या है किसीको पता नहीं.
विश्व  के किसी भी शब्दकोश में ' नवायान ' शब्द नहीं है. 
लेकिन,  लेखक अनिल कुमार पंचभाई ने अपनी पुस्तक ' नवायान ' क्या है?  इसे समजाने का एक सफल प्रयास किया है. यह पुस्तक विजयादशमी के दिन २ अक्तूबर २००६ को सुगत बुक डेपो, नागपुर- ४४००१७ से प्रकाशित की गई. 
' नवायान ' देखने के पूर्व हमें हीनयान और महायान क्या है समजने के लिए संक्षिप्त में  देखना होगा.
हीनयान - ( स्थविरवाद )
' हीनयान ' को समजने के लिए उसके ' तिन पीटक ' याने ' त्रिपिटक '-- बुद्ध के वचन संग्रह पढ़ना चाहिए.
गौतम बुध्द के वचन ' पाली ' भाषा में है. 
गौतम बुद्ध के वचन --(१) विनय  पिटक, (२) सुत्त  पिटक  और (३) अभिधम्म  पिटक.  इसे तिन भागो में विभाजित किया है. इसलिए इसे त्रिपिटक कहते है. 
विनय  पिटक के पांच भाग है :--
                  (१) महावग्ग, (२) चुलवग्ग, (३) पाराजिक, (४) पाचितिय  और (५) परिवार.
सुत्तपिटक के पांच भाग है जिसे निकाय कहते है :-
                  (१) दीघनिकाय, (२) मज्जिम निकाय, (३) संयुक्त निकाय, (४)  अंगुत्तर निकाय, और 
                  (५) खुद्दक निकाय. 
                   दीघनिकाय में ३४ सुत्त है.
                   मज्जिम निकाय में १५२ सुत्त है.

                   संयुक्त निकाय में ७७६२ सुत्त है. और
                   अंगुत्तर निकाय में ९५५७ सुत्त है.

खुद्दक निकाय के पंधरा ग्रन्थ हैं:- (१) खुद्दक पाठ, (२) धम्मपद, (३) उदान, (४) इत्तिवुत्तक, 
                   (५) सुत्तनिपात, (६) विमान-वत्थु, (७) पेतवत्थु, (८) थेरगाथा, (९) थेरीगाथा, (१०) जातक, 
                   (११) निद्देस, (१२) पटिसंम्भिदामग्ग, (१३) अपदान, (१४) बुद्धवंस और (१५) चरियापिटक.
अभिधम्मपिटक के सात भाग है:-- 
                    (१) धम्मसंगिणी, (२) विभंग, (३) धातुकथा, (४) पुग्ग्ल पन्यति, (५) कथावत्थु, (६) यमक और 
                     (७) पटठान.
महायान 
महायान के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है. 
महायान के नौ ग्रन्थ है :- (१) लंकावतार-सूत्र, (२) अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता, (३) सध्दर्मपुण्डरिक,
                      (४) ललित-विस्तार, (५) सुवर्णप्रभास, (६) गण्डव्यूह, (७) तथागतगुह्यक, (८) समाधिराज और 
                       (९) दशभूमिश्वर.
हीनयान, महायान, वज्रयान, मंत्रयान, तंत्रयान, सहजयान ये सभी बुध्द के अंग-नामरूप जैसे है. इसमें से  किसी एक को बुध्द या बुध्द का उपदेश-तत्वज्ञान समजना गलत होगा.
बुध्द हमेशा अन्धो  का एक  उदाहरण दिया करते थे --- एक गांव में कुछ अंधे हाथी को देखने आये, एक ने पीठ को स्पर्श करते हुए कहा ' ये हाथी है', दुसरे ने पैर को छू कर कहा 'ये हाथी है', तीसरे ने सूंड को छू कर कहा 'ये हाथी है', चोथे ने कान को छू कर  कहा 'ये हाथी है', पाँचवे ने दुम छू कर कहा 'ये हाथी है '. इस तरह वे अंधे आपस में बात कर रहे थे. उसी समय वंहा पर  एक आँखवाला आया और उस आँखवाले ने उन अंधों को कहा ये   हाथी के अंग पीठ, पैर, कान, सूंड, दुम  है, ये हाथी का एक-एक अवयव है, ये सब मिलाकर एक सम्पूर्ण हाथी होता है.
इसी अन्धो की तरह विश्व के अज्ञानी लोग  बुध्द के अलग-अलग उपदेश-तत्वज्ञान-मार्ग  को ही बुध्द (हाथी) समज बैठे है.इसी कारण विश्व के हीनयान  बौध्द और महायान बौध्द और उनके राष्ट्रों में भाईचारा FRATERNITY नहीं है, जो भविष्य में BUDDHISM के लिए एक महान खतरा है. विश्व के बौध्द राष्ट्रों का एक COMMON PLATFORM नहीं है. चीन में BUDDHISM  कैद है. रशिया में BUDDHISM की हालत खस्ता है. भारत में BUDDHISM का  पौधा अभी जड़े मजबूत करने में बहुत मेहनत कर रहा है क्योंकि भारत में पुराने BUDDHISM के अनेक दुश्मन है.
पुराना खिचड़ी पकाया  BUDDHISM भारत को बौध्दमय नहीं बना सकता.
इसलिए डॉ. आंबेडकर को १३ आक्टोबर १९५६ को नागपुर में CONVERSION करने के एक दिन पहले कहना पड़ा ' ये मेरा ' नवायान ' है .       
बौध्द धम्म की आधारशिला क्या है?
इस प्रश्न पर की बौध्द धम्म की आधारशिला क्या है, कुछ मतभेद रहा है.
क्या अकेली करुणा बौध्द धम्म की आधारशिला है?
क्या अकेली प्रज्ञा बौध्द धम्म की आधारशिला है?
इस मतभेद के कारण बुध्द के अनुयायी दो पक्षों में विभक्त हो गए थे.
एक पक्ष का मत था की अकेली करुणा ही बौध्द धम्म की आधारशिला है. दुसरे पक्ष का कहना था की अकेली प्रज्ञा ही बौध्द धम्म की आधारशिला है.
ये दोनों पक्ष आज भी विभक्त हैं. 
यदि ' बुध्द-वचनों ' को लेकर विचार किया जाये तो दोनों पक्ष गलत प्रतीत होते है.
इसमें कोई मतभेद नहीं है कि बुध्द धम्म के दो स्तंभों में से एक ' प्रज्ञा ' है. 
प्रश्न यही है कि ' करुणा ' भी दूसरा स्तम्भ है वा नहीं. 
करुणा
करुणा भी बुध्द के धम्म का एक स्तम्भ है-- यह विवाद से परे कि बात है. इसके समर्थन में बुध्द-वचन उद्धृत किया जा सकता है.-- ( देखो पुतिगत्त-तिस्स क़ी कथा ( धम्मपदट्ट कथा )
पुराने समय में गंधार देश में एक बहुत ही भयानक बीमारी से पीड़ित कोई साधू था. वह जंहा कंही बैठता, उसी जगह को गन्दा कर देता. वह एक ऐसे विहार में था, जंहा कोई उसकी सहायता न करता था. वह स्थान इतना दुर्गन्धपूर्ण था कि सभी भिक्षुओं को उस साधू से भी घृणा हो गई. लेकिन बुध्द ने शुक्रदेव नामक भिक्षु से पानी आदि डलवाकर उस रोगी को अपने हाथ से स्नान कराया और उसकी सेवा क़ी.-----जितने भी वंहा एकत्रित हुए थे, उन सभी को आश्चर्य हुआ, इसलिए उन्होंने पुछा कि इतने ऊँचे होकर आपने इतना सामान्य काम क्यों किया?.  बुध्द (तथागत) ने समजाया----
" संसार में आने का तथागत का उद्देश ही यह है कि दरिद्रों, असहायों, और आरक्षितो का मित्र बनना. जो रोगी हों ----श्रमण हों वा दुसरे कोई भी हों-- उनकी सेवा करना. दरिद्रों, अनाथो, और बूढों की सहायता करना तथा दूसरों को ऐसी करने की प्रेरणा देना ".  
प्रज्ञा 
ब्राह्मण विद्या को ही बहुत बड़ी बात समजते थे. आदमी चाहे शीलवान हो और चाहे न हो किन्तु यदि वह विद्वान है, तो उनकी दृष्टी में वह पूज्य था.उन्होंने कहा है की राजा तो अपने देश में ही पूजा जाता है किन्तु विद्वान सर्वत्र पूजित होता है, इसका मतलब था की विद्वान राजा से बढ़कर है.
तथागत ( बुध्द) ने प्रज्ञा को विद्या से भिन्न माना है. 
(देखिये-अंगुत्तर निकाय - वस्सकार सुत्त- चतुक्क निपात )  
--------जिस आदमी में ये चार गुण है, उसे ही मै प्रज्ञावान समजता हूँ. एक आदमी बहुत जनों के हित के लिए
            होता है, बहुत जनों के कल्याण के लिए होता है. उसके कारण बहुत से आदमी सुन्दर, हितकर
            अष्टांगमार्ग के अनुगामी है.
            (१) वह जिस विषय में मन को लगता है, उस विषय में वह मन को लगा सकता है; जिस विषय में मन
                 को नहीं लगाना चाहता उस विषय में वह मन को उधर जाने से रोक सकता है.
            (२) जिस संकल्प  को वह मन में उत्पन्न होने देना चाहता है, उस संकल्प को मन में उत्पन्न होने
                  देता है, जिस संकल्प को मन में उत्पन्न होने नहीं देना चाहता उस संकल्प को मन में उत्पन्न होने
                  नहीं देता. इस प्रकार उसे अपने विचारों पर अधिकार होता है.
            (३) वह जब चाहे बिना कठिनाई के, बिना तकलीफ के चारो लोकोत्तर ध्यानों को प्राप्त कर सकता है,
                 जो इसी जीवन में सुख-विहार के लिए है.
            (४) वह इसी जन्म में आस्त्रवों का क्षय कर,  आस्त्रव -क्षय ज्ञान को प्राप्त हो, चित्त की विमुक्ति को
                 प्राप्त करता है, प्रज्ञा द्वारा विमुक्ति को प्राप्त कर वह इसमें विहार करता है.    
प्रज्ञा आदमी के हाथ की दुधारी तलवार है. 
शीलवान आदमी के हाथ में होने पर यह खतरे में पड़े हुए किसी आदमी की रक्षा कर सकती है.
लेकिन शील-रहित आदमी के हाथ में होने पर यह किसी की हत्या भी करा सकती है.
इसलिए प्रज्ञा से भी शील का अधिक महत्व है.
प्रज्ञा विचार-धर्म है, सम्यक विचार करना . शील आचार-धर्म है, सम्यक आचरण करना.  
नवायान
नवायान यह ईश्वर, परमेश्वर और अल्लाह-खुदा के तत्वज्ञान में विश्वास नहीं रखता.  
नवायान यह धर्म, रीलिजन और मजहब नहीं है. 
धर्म, रीलिजन और मजहब अपने-अपने ईश्वर, परमेश्वर और अल्लाह-खुदा में विश्वास रखते हैं.

नवायान याने :--
* MUST BREAK DOWN ALL THE BARRIERS BETWEEN MAN AND MAN.
* MUST TEACH THAT WORTH AND NOT BIRTH IS THE MEASURE OF MAN.
* MUST PROMOTE EQUALITY BETWEEN MAN AND MAN.
* THAT THOUGH OTHERS MAY NOT LEAD THE HIGHER LIFE, YOU WILL.
* THAT THOUGH OTHERS MAY LIE, TRADUCE, DENOUNCE. OR PRATTLE, 
   YOU WILL NOT.
* THAT OTHERS MAY BE COVETOUS, YOU WILL NOT.
DO GOOD, BE NOT PARTY TO EVIL AND COMMIT NO SIN.
* TO CLEANSE THE MIND OF IMPURITIES.
* TO MAKE THE WORLD A KINGDOM OF RIGHTEOUSNESS.                     
भारत में नवायान की स्थापना करने के पूर्व भारत में मुख्यतः आर्य धर्म, हिन्दू धर्म, जैन धर्म, ईसाई रीलिजन, इस्लाम मजहब और सिख-पंथ प्रचलित थे. जो ईश्वर, परमेश्वर और अल्लाह-खुदा को ही अपने जीवन का जन्म से लेकर मृत्यु तक की सब घटनाओं के लिए जिम्मेदार समजते थे. उनकी नजर में इंसानों  (औरत और आदमी) की कोई किमंत नहीं थी. इसी तत्वज्ञान के अंतर्गत दो हजार वर्षों से आदमी गुलाम बन कर रह गया. 
इसी तत्वज्ञान के कारण विश्व और भारत के लोगों ने  (१) स्वतंत्रता, (२)  समता, (३) न्याय  और (४) भाईचारा के मुलभुत अधिकारों को दफना दिया था.
भारत में बौध्द धम्म का नामोनिशान मिट गया था. और विश्व  में कंही जो बौध्द धम्म है उसमें उनके प्रचलित धर्म की खिचड़ी पकाई गई है. 
विश्व के बौध्द धर्म में ईश्वर, देवी-देवताओं और कर्म-काण्डों-पूजा-अर्चना की खिचड़ी पकाई गई है.  इस तरह विश्व में बौध्द धर्म मिलावटी है. 
बुद्ध ने ईश्वर-तत्वज्ञान के धर्म को अधर्म और अज्ञान कहा.
(देखिये--चुलवग्ग-६ :२. --विनय पीटक )
विश्व के संपूर्ण मानव समाज को अपनी समस्याओं को GOD -ईश्वर के सामने नतमस्तक होकर, जब बाबासाहेब आंबेडकर ने देखा तो उन्होंने इस समस्या से मुक्ति पाने के लिए जो औषधि-तत्वज्ञान दी है,  उसी का नाम नवायान है. 
" धर्म के भविष्य " के  बारे में बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा:-- 
( देखिये--डॉ. आंबेडकर का लेख- बुध्द और उनके धम्म का भविष्य --१९५० )
१. " समाज को अपनी एकता को बनाये रखने के लिए या तो कानून का बंधन स्वीकारना ओअदेगा या फिर नैतिकता का. दोने के अभाव में समाज निश्चय ही टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा. सभी प्रकार के समाज में कानून की भूमिका अत्यल्प होती है. उसका उद्देश्य होता है ( कानून तोड्नेवालो ) अल्पसंख्यकों को सामाजिक अनुशासन  की सीमा में रखना. बहुसंख्यकों कों मात्र अपना सामाजिक जीवन बिताने के लिए नैतिकता के  प्रामान्य और अधिकार पर छोड़ दिया जाता है, नहीं छोड़ना ही पड़ता है. इसलिए धर्म को नैतिकता के अर्थ में प्रत्येक समाज के अनुशासन का तत्व बने रहना चाहिए.
२. " धर्म की उपर्युक्त परिभाषा विज्ञान के अनुकूल होनी चाहिए. यदि धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है तो वह अपने महत्व को खो कर हंसी और मजाक का विषय बन सकता है और जिवानुशासन के तत्व-रूप में न केवल वह अपनी शक्ति खो बैठता है, बल्कि समय के साथ विछिन्न होकर समाज से लुप्त भी हो सकता है. दुसरे शब्दों में, धर्म को अगर वास्तव में कार्यशील होना है, तो उसे तर्क और विवेक पर आधारित होना चाहिए. इसका ही दूसरा नाम विज्ञान है.
३. " सामाजिक नैतिकता की संहिता के रूप में ठहरने के लिए धर्म को चाहिए कि वह समता, स्वतंत्रता और बंधुता के बुनयादी तत्वों को मान्य करें. समाज जीवन के इन तिन तत्वों का स्वीकार किये बगैर कोई भी धर्म जिन्दा नहीं रह सकता. 
४. " धर्म ने निर्धनता को पवित्रता नहीं बक्शनि चाहिए अथवा उसका उदात्तीकरण नहीं करना चाहिए. धनवानों के लिए निर्धन बनना चाहे संतोषदायी हो भी. परन्तु निर्धनता कभी  संतोषदायी  नहीं होती. निर्धनता को संतोषकारी घोषित करना धर्म का विपर्यास है, बुराई और अपराध को बढ़ावा देना है तथा इस संसार को प्रत्यक्ष में नर्क में ढालना है.
कौन सा धर्म इन आवश्यकताओं को पूरा करता है? इस प्रश्न का विचार करते वक्त इस बात को यद् रखना चाहिए कि संत- महात्माओं के निर्माण के दिन अब बीत चुके हैं और संसार में कोई नया धर्म पैदा होनेवाला नहीं है. संसार को प्रचलित धर्मों में से ही किसी एक धर्म को चुनना होगा. इसलिए इस प्रश्न का विचार प्रचलित  धर्मों तक ही सीमित रखना चाहिए. 
हो सकता है कि प्रचलित धामों में से कोई एक धर्म उपरोक्त मापदन्डों में किसी एक कसौटी पर खरा उतरता हो या कोई दो पर. परन्तु प्रश्न यह है कि क्या कोई धर्म है जो इन तमाम मापदन्डों कि कसौटी पर खरा उतरता है? जंहा तक मेरी जानकारी है इन तमाम मापदन्डों पर खरा उतरनेवाला केवल एक ही धर्म है जिसे नया जगत अपना सकता है. यदि नए जगत को --और यह ध्यान रहे कि यह नया जगत पुराने जगत से सर्वथा भिन्न है-- किसी धर्म को अपनाना ही हो -- और नए जगत को ओउराने जगत कि अपेक्षा धर्म की अत्यधिक जरुरत है-- तो वह केवल बुध्द का धम्म ही हो सकता है.
ये तमाम बातें शायद आश्चर्यजनक प्रतीत होती हो. यह इसलिए कि बुध्द के सम्बध्द में लिखनेवालों में से अधिकांश लोगों ने केवल इसी कल्पना का प्रचार किया है कि बुध्द ने सिर्फ एक ही शिक्षा दी है; और वह है अहिंसा की. यह बहुत बड़ी गलती हैं. यह सच है कि बुध्द ने अहिंसा की शिक्षा दी है. मैं उसके महत्व को कम नहीं करना चाहता हूँ. क्योंकि वह एक महँ सिध्दान्त है. उस पर अमल किए बैगर संसार को बचाया नहीं जा सकता. मैं जिस बात पर बल देना चाहता हूँ वह यह है कि अहिंसा के अतिरिक्त बुध्द ने और बहुत सी बातों की शिक्षा दी है. उन्होंने सामाजिक, बौध्दिक, आर्थिक और राजनैतिक स्वतंत्रता की शिक्षा दी है उन्होंने समानता की शिक्षा दी, न केवल पुरुष और पुरुष के बीच की समानता की, बल्कि पुरुष और स्त्री के बीच की समानता की भी. बुध्द की तुलना में अन्य कोई ऐसे धर्म संस्थापक को खोजना कठिन होगा कि जिसकी शिक्षा लोगों के सामाजिक जीवन के इतने सारे पहलुओं को स्पर्श कराती हो और जिसके सिध्दान्त इतने आधुनिक हों और जिसका मुख्य उद्देश्य इन्सान को इसी धरती पर इसी जीवन में विमुक्ति दिलाना हो, न कि मृत्यु के बाद स्वर्ग का वादा करना."
धर्म  परिवर्तन
डॉ आंबेडकर ने १४ ऑक्टोबर १९५६ को नागपुर में सात लाख अनुयायियों के उपस्थिति में कहा :-
मनुष्य को इज्जत प्यारी है। लाभ प्यारा नहीं होता । हम सम्मान के लिए सघर्ष कर रहे है।
यह है नवायान का आन्दोलन-संघर्ष।
मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है-- इज्जत से रहना। इसकी पूर्ण प्राप्ति तक जितना अधिक हम आगे जा सकते है, उतना है आगे जाने की हमारी तीव्र  इच्छा है। इसके लिए हम जो कुछ भी त्याग करे वह थोडा हैं।
मैंने हिन्दू धर्म का त्याग करने का आन्दोलन १९३५ में शुरू किया था और बराबर इस आन्दोलन को चला रहा हूँ। येवला (नासिक जिल्हा) में इस आन्दोलन को चलने के लिए अप्रैल १९३५ में बड़ा जलसा किया था और उसमें एक प्रस्ताव द्वारा हमने निर्णय किया था की हम हिन्दू धर्म को छोड़ेंगे। मैंने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि यद्दपि मैंने  हिन्दू धर्म में जन्म अवश्य लिया है तो भी हन्दू धर्म में नहीं मरूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा मैंने आज से २१ वर्ष पूर्व की थी और उसे आज पूरा कर दिखाया। इस धर्मान्तर से मैं बड़ा ही खुश हुआ हूँ और प्रफुल्लित हो उठा हूँ। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं नरक से छुटकारा पा गया हूँ। मुझे कोई अंधभक्त नहीं चाहिए। जो लोग बौध्द धर्म में आना चाहते है उन्हें खूब सोच समजकर आना चाहिए ताकि वे आगे इस धर्म में सुदृढ़ रह सकें।
नवायान का अर्थ हैं--- हिन्दू धर्म जो जातिवाद का आधार है वह नर्क के समान है, उस नर्क समान हिन्दू धर्म से छुटकारा।
इसलिए डॉ आंबेडकर ने उसी दिन १४ ओक्टोबर १९५६ को अपने सात लाख अनुयायिओं को बौध्द धर्म कि दीक्षा देते समय उनसे २२ प्रतिज्ञा ली थी। 
महायान यह देवी-देवताओं से भरा पड़ा हैं, महायान में पूजा-अर्चना और कर्म-कांड बहुत ज्यादा हैं। 
हीनयान में भी देवी-देवताये, पूजा-अर्चना और कर्म-कांड है।
पुराने बौध्द धर्म में हिन्दू धर्म कि खिचड़ी पकाई गई है। क्योंकि हीनयान और महायान धर्मो ग्रंथो कि रचना इसवी सन के बाद करनेवाले ब्राह्मणवाद के ही लोग थे।
इसलिए डॉ आंबेडकर को पुराने बौध्द धर्म के जगह NEW BUDDHISM means NAVAYAN देना पड़ा।
इसलिए डॉ आंबेडकर को अपने सात लाख अनुयायिओं को निम्नलिखित २२ प्रतिज्ञाए देनी पड़ी।  
बौध्दों कि २२ प्रतिज्ञाएँ 
नवायान कि ये २२ प्रतिज्ञाएँ है:--
१.   मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को कभी ईश्वर नहीं मानूंगा और न मैं उनकी पूजा करूँगा। 
२.   मैं राम और कृष्ण को ईश्वर नहीं मानूंगा और उनकी पूजा कभी नहीं करूँगा।
३.   मैं गौरी, गणपति, इत्यादि हिन्दू धर्म के किसी भी देवी देवताओं को नहीं मानूंगा और न ही उनकी पूजा 
      करूँगा।
४.   मैं ईश्वर ने कभी अवतार लिया है इस पर विश्वास नहीं करूँगा।
५.   मैं बुध्द विष्णु का अवतार है इसे कभी नहीं मानूंगा। मैं ऐसे प्रचार को पागलपन और झूठा प्रचार समजता  
      हूँ।
६.   मैं श्राद्ध कभी नहीं करूँगा और न ही कभी पिंडदान दूंगा।
७.   मैं भौध्द धर्म के विरुध्द किसी भी बात को नहीं करूँगा।
८.   मैं कोई भी क्रिया कर्म ब्राह्मणों के हाथों से नही कराऊंगा।
९.   मैं "सभी मनुष्य एक हैं " इस सिध्दांत को मानूंगा।
१०. मैं समानता की स्थापना के लिए प्रयत्न करूँगा।
११. मैं बुध्द के अष्टांगिक मार्ग का पूर्ण पालन करूंगा।      
१२. मैं बुध्द के बताएं हुए दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करूँगा। 
१३. मैं प्राणिमात्र पर दया रखूँगा और उनका लालन-पालन करूंगा।
१४. मैं चोरी नहीं करूँगा। 
१५. मैं झूठ नहीं बोलूँगा।
१६. मैं ब्याभिचार नहीं करूँगा।
१७. मैं शराब नहीं पीऊंगा।
१८. मैं अपने जीवन को बौध्द धर्म के तिन तत्व अर्थात - ज्ञान, शील और करुणा पर ढालने का प्रयत्न करूंगा।
१९. मैं मनुष्य मात्र के उत्कर्ष के लिए हानिकारक और मनुष्य मात्र को असमान और नीच मानने वाले अपने 
      पुराने हिन्दू धर्म का पूरी तरह त्याग करता हूँ और बुध्द धर्म को स्वीकार करता हूँ।
२०. मेरा ऐसा पूर्ण विश्वास हैं की बौध्द धर्म ही सध्दर्म हैं।
२१. मैं यह मानता हूँ कि मेरा पुनर्जन्म हो जहा हैं।
२२. मैं यह पवित्र प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज मैं बौध्द धर्म की शिक्षा के अनुसार आचरण करूँगा।
यह नवायान की वे २२ पवित्र प्रतिज्ञाएँ हैं जो पुराने बौध्द धर्म में नहीं थी, 
इसी कारण यह NEW-BUDDHISM means NAVAYAN  हैं।

             

                    
     
     
         
हीनयान का ग्रन्थ 

    

Wednesday 18 January 2012

MANIFESTO OF BHARAT-COMMON PLATFORM

अप्रतिष्ठित  चित्तं 
एक अच्छा हिन्दू, एक अच्छा बौद्ध, एक अच्छा जैन, एक अच्छा क्रिस्टियन, एक अच्छा मुस्लमान, एक अच्छा सिख,  एक अच्छा उद्योगपति और एक अच्छा इन्सान कौन है?
विश्व  की 6  अरब जनसंख्या में से लगभग 5  अरब लोग--हिन्दू धर्मं में  ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, दुर्गा, काली, देवी-देवताओं , हनुमान,  तिरुपति बालाजी, साईं, विट्ठल, नानक, कबीर, साधू- संत-महंत, ओम -सोहम , -- जैन धर्म में  भगवान महावीर,--- बौध्द धम्म में बुध्द, अमिताब बुध्द,---ईसाई रिलिजन में मेरी मदर, जिसस क्राइस्ट, क्रास, ---इस्लाम मजहब में ईदगाह-मस्जिद  पर नमाज, दरगाह पर मिन्नत, हज  --------जप, तप, आराधना, प्रार्थना, पूजा-अर्चना कर्म-कांड, धूप-अगरबती,  फूल, स्नान, इत्यादियों  में लिप्त रहते है.    

यह एक विश्वास है, जो हजारो वर्षो से चला आ रहा है. 
लेकिन यह विश्वास एक विश्वास ही बनकर रह गया. इस विश्वास की ताबीर-तस्वीर -हकीकत में नहीं बदली. 
इसी विश्वास के लोगों  ने --  ईश्वर, खुदा और जीसस  को नहीं देखा, ना सुना, ना उनसे कोई बात की. आज भी  इसी उम्मीद के सहारे वे जीते हैं कि एक दिन उनका विश्वास रंग लायेगा और वे हंसी-ख़ुशी के साथ मृत्यु को गले लगायेंगे. राह ताकते रह गए और इसी उम्मीद के सहारे कई सदियां  गुजर गई, लेकिन बड़े दुःख के साथ, निराश, के साथ वे इस दुनिया से विदा हो गए, विदा हो रहे हैं, विदा होते रहेंगे. लेकिन  भरोसा आज भी कायम है. और इस उम्मीद की कोई दिशा नहीं--जैसे मृगजल.

कितना बड़ा धोका हुआ है, हो रहा है , और होते रहेगा 5  अरब लोगों  के साथ. और वे कौन लोग हैं  जो इसके लिए जिम्मेदार है?  क्या कोई उपाय नहीं है?  कहते है मानव सबसे ज्यादा INTELLECTUAL है . क्या उसकी यही विद्वत्ता है कि वह अपने ही जाल में फंसा है, जिससे उसकी कोई मुक्ति नहीं है?  

विश्व के कितने घंटे जप-तप- प्रार्थना, पूजा- अर्चना  में बर्बाद हो रहे है. और उसके बाद में मानव में कोई परिवर्तन नहीं. मानव जैसा था वैसा ही है, मानव का दूसरे मानव के साथ कोई मैत्रीपूर्ण व्यवहार नहीं, कोई सदाचार नहीं. वह कल जैसा था वैसा ही आज भी है. वही कल की नफ़रत, वही कल की दुश्मनी, वही खून-खराबा , वही मारपीट-फिसाद, वही क्रोध, वही लालच, वही दगाबाजी. 

ईश्वर और खुदा की याद में  मानव इन्सान नहीं बन पाया. मानव बाहरी शक्तियों का सिर्फ मन से गुलाम बनकर रह गया है. मानव शरीर से स्वतंत्र हुआ है पर मन से आज भी गुलाम है. यही मानव-जाति  की हजारो वर्ष पुरानी  बेदर्द, दुखभरी कहानी-दास्तान है. इसके लिए कौन जिम्मेदार है?  क्या आदमी एक अच्छा  इन्सान बन पायेगा?  वह कौनसा मार्ग है जो आदमी को एक अच्छा इन्सान बनाता है? इस धरती पर अच्छे इंसानों की कमी क्यों है? क्या धर्मो में कमी है?  या मां-बाप के संस्कार सदाचार नहीं है? कोई तो  कारण होगा ? यह कारण राष्ट्र के या राज्य के दायरे में आता है या दोनों के दायरे में नहीं आता? इस कारण की जिम्मेदारी किसकी है? कितनी भी पंचवार्षिक योजनाये बना लो, कितने ही मंदिर, विहार, चर्च और मस्जिद बना लो, यदि भारत के लोगों को सदाचार बनाने का कारखाना नहीं खोला जाता तो सभी विकास, हित और उससे सम्बंधित कार्य व्यर्थ है.

इस कार्य को अपने मुक्काम तक पहुंचाने के लिए बस एक ही सम्यक उपाय है, और वह है--

भारत के सभी राज्यों के सभी धर्मो के 10 -10 प्रतिनिधियों को  मिलकर एक COMMON PLATFORM बनाया जाये,  जिन प्रतिनिधियों की  संख्या लगभग 500  होना चाहिए.
इस COMMON PLATFORM  पर कोई धर्मंनीती, राजनीति , अर्थनीति, सामाजिकनीति   की चर्चा नहीं होगी.  

इस COMMON PLATFORM पर भारतीय लोगो के मन में  कैसे नफ़रत, क्रोध, लालच के बदले प्रेम, मैत्री, नम्रता, सहिष्णुता, सदाचार, का प्रशिक्षण दिया जाये-- इसके चर्चे भारत भर होना चाहिए और पर्चे भारत भर मे बांटना चाहिए. ये पर्चे स्कुल, कॉलेजेस, सभी केंद्रीय और राज्य कर्मचारियों को मिलाना चाहिए. यह कार्य तुरंत अंमल में आना चाहिए.  और यह कार्य नियमित रूप से बिना बाधा से, अखंड चलाना चाहिए. 

COMMON PLATFORM राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्य को सफल बनाने के लिए भारत के सिनेमा घरो में और टेलीविजन चैनल पर कम से कम एक वर्ष के लिए कोई भी मारपीट, खूनखराबा, बलात्कार, अत्याचार, अन्याय, चोरी, डकैती, लूटमार आदि दृश्यों पर रोक लगा दी जाये.  अच्छे उद्देश के लिए भारत के सभी संस्थाओं ने अपना-अपना सहकार्य देना चाहिए. यह कोई तानाशाह का आदेश नहीं है. यह तो भारत का लोकतंत्र और मजबूत बनाने का एक और नया- मार्ग है.जिसमे सभी लोकतान्त्रिक नागरिक भारतियों के योगदान की आज के अस्थिर और आतंकवाद के युग में नितांत आवश्यकता है. 

क्योंकि भारत के ही नहीं विश्व के सभी लोग और उनके देश असुरक्षित है. इसलिए भारत देश का यह सबसे प्रथम और महत्वपूर्ण कर्तव्य बनता है कि वह इस सम्यक कार्य के लिए नेतृत्व  करे. भारत का इतिहास गवाह है क़ि दो हजार वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने ऐसा ही नेतृत्व किया था और उनको इस कार्य के लिए सफलता और पहचान मिली थी जिसके कारण भारत का गौरव विश्व में फैला था और भारत ' सोने की चिड़िया ' के नाम से जाना जाता था. इतिहास गवाह है सम्राट अशोक के कार्य-काल में  प़ूरे भारत वर्ष में शांति और भाईचारे का माहौल था.

COMMON PLATFORM और कुछ नहीं सम्राट अशोक का वही पुराना लेकिन नए लोकतान्त्रिक अंदाज में भारत का एक पैगाम है. 

COMMON PLATFORM भारत का MANIFESTO है
COMMON PLATFORM भारत की जीवनशैली है.    
COMMON PLATFORM भारत का अप्रतिष्ठित चित्तं  है. 
अप्रतिष्ठित चित्तं 
एक अच्छा इन्सान बनाने के लिए चित्त को प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिए.
चित्त और मन दोनों अलग अलग है.
चित्त में जब (१) वेदना, (२) संज्ञा, (३) संस्कार  और (४) विज्ञान  प्रतिष्ठित होते है तब तक संस्कारित मन, पुराना मन अज्ञान में रहता है, दुख में रहता है और लोगों को भी दुखी करता है. इसलिए भारत के ही नहीं विश्व  के लोग उदासीन और  दुखी है.
लेकिन जब चित्त में (१) वेदना (२) संज्ञा  (३) संस्कार और (४) विज्ञान  प्रतिष्ठित नहीं ( अप्रतिष्ठित चित्तं ) होते तब मानव एक अच्छा इन्सान बनता है. तब उत्पन्न नए मन में करुणा, प्रज्ञा, मैत्री, क्षमा, और शांति  उत्पन्न होती है. फिर यही नया - मन बिना बाधा से जग में मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने लगता है और लोगों को मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने की प्रेरणा देता है. COMMON PLATFORM का यही  तत्वज्ञान,प्रचार और प्रसार है.



Wednesday 11 January 2012

JESUS CHRIST LIVED IN INDIA

  जीसस क्राइस्ट का भारत में शूद्रों को सन्देश 
बौध्द सम्राट मौर्य अशोक का जम्बुद्वीप-भारत पर इसवी  सन पूर्व 274  में  जब एकमेव शासन था.  तब उन्होंने अपने राज्याभिषेक के उत्सव पर अपने राजदूतों कों राजपत्रित आमन्त्रण पत्र देकर विश्व के सभी राजा महाराजाओं को आमंत्रित किया था. महास्थविर मोग्गली पुत्ततिस्सा जो सम्राट अशोक के गुरु थे उन्होंने सम्राट अशोक की सहायता से भारत से बहार फारस, यूनान, मिश्र, सीरिया, श्रीलंका, बर्मा आदि देशो में धर्म प्रचार करने के लिए बौध्द भिक्षु भेजे थे. (सदर्भ--ग्लिम्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री)
विश्व  के बहुतांश राजा महाराजायें इस उत्सव में भाग लेने SILK ROAD से भारत में आये थे.
रोम देश के राजकुमार और उनके मंत्री भी आये थे.
इसवी सन पूर्व 44 में रोम सम्राट जुलिअस सीजर की हत्या की गई.
इसवी सन पूर्व 31 में क्लिओपात्रा रोम की Emperor-सम्राज्ञी बनी.
इसवी सन पूर्व 14 में AUGUSTUS रोम के सम्राट का निधन हुआ तब जीसस क्राइस्ट 14 वर्ष के थे. 
यीशु मसीहा का समय सम्राट अशोक के 250 वर्ष बाद का है.
रोम देश में जीसस क्राइस्ट के लोगों पर बहुत अत्याचार, बलात्कार और अन्याय हो रहा था. जब जीसस क्राइस्ट जवान हुए, तब उन्होंने अपने लोगों को संगठित करके एक क्रांति की. नतीजा यह हुआ की जीसस क्राइस्ट को अपने उम्र के 18 वे वर्ष में अपना देश छोड़ना पड़ा. यीशु भागकर यरुशलम शहर से व्यापारियों के साथ भारत के सिंध प्रान्त में आया.   
जीसस क्रिस्ट अपने मित्रों के साथ SILK ROAD से ल्हासा आये थे. जीसस क्राइस्ट ल्हासा, लदाख, तिबेट और नेपाल के हिमालय भागों में 12 वर्ष अभ्यास करते रहे. ईसा ने अपना विद्यार्थी जीवन कश्मीर की बौध्द गुफाओ में बिताया था.  उच्च शिक्षा पाकर जीसस अपने देश लौट आये. तब उनकी उम्र 29 वर्ष की थी. BIBLE में इस 12 वर्ष का जिक्र नहीं है. उम्र के 32  याने तिन  वर्षो तक जो आन्दोलन किया उससे उनके देश में जो विद्रोह हुआ, उस विद्रोह ने संपूर्ण रोम देश में एक परिवर्तन की लहर दौड़ आयी. जीसस के THE SERMON OF MOUNTAIN के प्रवचन ने और उसके बाद के प्रवचन ने THE BIBLE प्रकाशित हुआ. 
ईसा पर राजद्रोही होने का अभियोग चलाया गया था और इस अपराध में ही उसको फंसी मिली थी.
जीसस और उसके मित्रों को A.D. 29 को  CROSS पर लटकाया गया. वह दिन था FRIDAY. दुसरे दिन Saturday को रोम देश का उत्सव था, इसलिए जीसस को और उसके साथियों को वैसे ही सलीब पर छोड़कर सैनिक चले गए. जीसस और उनके साथियों को सलीब से उतारकर वे सभी कब्र की और चले गए. जीसस अभी तक जीवित थे. जब लोग उसकी कब्र पर आकर बड़ी हलचल करने लगे तब न्यायाधीश में उसके बेहोश (मृतक समजकर) शरीर को चुपके से कब्र से अलग दूर कर देना ही उचित समजा. फांसी देने के पूर्व यीशु को  अफीम दी गई थी ताकि वह अचेत रहे और गहरी नींद में सोते रहने से उन्हें कष्ट न हो. यीशु जीवित थे क्योंकि सलीब से उतरने के बाद भी उनके शरीर से खून बह रहा था.  
कुरान दृढ़ता से कहता है की यीशु मसीहा को क्रूस पर मरने से पहले बचा लिया गया.
जीसस के कहने पर उनको भारत लाया गया. 
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु लिखते हैं--" सारे मध्य एशिया में विशेष कर कश्मीर, लद्दाख और तिब्बत में बल्कि उत्तर दिशा से भी आगे यह विश्वास किया जाता है कि यीशु मसीह ने इन स्थानों कि यात्रा की थी.  
जीसस  उम्र के 80 वर्ष में  वे कुषाण राजवंश बौध्द सम्राट कनिष्क के राज्य में थे. कनिष्क शासन काल में गांधार कला और तक्षशिला विश्वविद्यालय ससार भर में प्रसिध्द थे. आपस में के मतभेदों को भुलाने के लिए कनिष्क ने एक बड़ी सभा बुलाई थी वह सभा श्रीनगर से 12 किलोमीटर दूर हरन नमक स्थान में बुलाई गई थी. इस सभा में 1500 बौध्द भिक्षु सम्मलित हुए थे. इसी काल में ललित विस्तार ग्रन्थ लिखा गया था. इस सभा याने तीसरी धम्म संगती का संचालन जीसस क्राइस्ट ने किया था. देखिये --होल्गर कर्स्टन की पुस्तक " Jisas  lived in India"  यीशु मसीह की मृत्यु 120  वर्ष की उम्र में कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के पास खानायारी नामक जगह पर हुई. आज भी यीशु की समाधी (कब्र ) यंहा पर है (सन्दर्भ - नोटोचिव  की पुस्तक)
(नोटोचिव का जन्म 25 अगस्त 1845 को रूस में हुआ था. सन 1887  में वे भारत की यात्रा पर आए थे.)
--- नोटोचिव मुस्लमान था. नोटोचिव लद्दाख की राजधानी लेह में गया और वंहा से हेमिस के प्रसिद्ध बुध्द 
     विहार में गया. वंहा पर उसने पूछा--" जिन धर्म ग्रंथो में यीशु के बारे में लिखा गया है वे कंहा से मिलेंगे?
--- नोटोचिव ने अपनी पुस्तक में लिखा --" यीशु जैन मत के अशुद्ध पुजारियों के पास नहीं रहा और उड़ीसा में 
     जगन्नाथ को चला गया. -----जगन्नाथ, राजगृह, बनारस और दुसरे तीर्थो में 6 वर्ष रहा. ---------
-----यीशु ने ब्राह्मणों की बात नहीं मानी और यीशु  वंहा से शूद्रों की तरफ चले गए. --------------------

     -------यीशु ने शूद्रों से कहा -- मूर्ति मत पूजो क्योंकि मूर्ति सुन नहीं सकती. वेदों को मत सुनो क्योंकि 
                इसमे सचाई नहीं है. गरीबो कि सहायता करो .निर्बल लोगों कि रक्षा करो. किसी का नुकसान मत  
                करो. -----------------------------------------------------------------------------------------------------------.
---यीशु के ऐसे प्रवचन सुनकर शूद्रों में एक संगठित चेतना जाग गई, इसका उलट यह परिणाम हुआ कि उस समय के मठाधिपतियों ने यीशु को जान से मारने कि धमकी दी. शूद्रों ने यीशु को वंहा से गुप्त रूप और मार्ग से हिमालय के लामा लोगों के पास छोड़ दिया. ---- 
( विस्तार के लिए पढ़िए--बरतानिया में बौध्द धर्म--लेखक --बी. आर. सावला )      






















































































































































































THE FUTURE OF ALL RELIGION

                                          सभी  धर्मों  कि  कसौटी 

(१)--" समाज को अपनी एकता को बनाए रखने के लिए या तो कानून का बंधन स्वीकारना पड़ेगा या फिर नैतिकता का. दोनों के अभाव में समाज निश्चय ही टुकडे-टुकडे हो जायेगा. सभी प्रकार के समाज में कानून की भूमिका अत्यल्प होती है. उसका उद्देश होता है ( कानून तोड़नेवाले ) अल्पसंख्यको को सामाजिक अनुशासन की सीमा में रखना. बहुसंख्यको को मात्र अपना सामाजिक जीवन बिताने के लिए नैतिकता के प्रामाणय और अधिकार पर छोड़ दिया जाता है, नहीं छोड़ना ही पड़ता है. इसलिए धर्मं को नैतिकता के अर्थ में प्रत्येक समाज के अनुशासन का तत्व बने रहना चाहिए.
(२)-- धर्म की उपर्युक्त परिभाषा विज्ञान के अनुकूल होनी चाहिए. यदि धर्म विज्ञान की कसोटी पर खरा नहीं उतरता है तो वह अपने महत्व को खो कर हंसी का विषय बन सकता है और जिवानुशासन के तत्व-रूप में न केवल वह अपनी शक्ति खो बैठता है, बल्कि समय के साथ विछिन्न होकर समाज से लुप्त भी हो सकता है. दुसरे शब्दों में, धर्म को अगर वास्तव में कार्यशील होना है, तो उसे तर्क और विवेक पर आधारीत होना चाहिए. इसका ही दूसरा नाम विज्ञान है.
(३)-- सामाजिक नैतिकता की संहिता के रूप में ठहरने के लिए धर्म को चाहिए कि वह समता, स्वंतंत्रता और बंधुता के बुनियादी तत्वों को मान्य करे. समाज जीवन के इन तीन तत्वों का स्वीकार किये बगैर कोई भी धर्म जिन्दा नहीं रह सकता. 
(४)-- धर्म ने निर्धनता को पवित्र नहीं मान्यता देना चाहिए. अथवा उसका उदात्तीकरण नहीं करना चाहिए. धनवानों के लिए निर्धन बनना चाहे संतोषदायी हो भी. परन्तु निर्धनता कभी संतोषदायी नहीं होती. निर्धनता को संतोषदायी घोषित करना धर्म का विपर्यास है. बुराई और अपराध को बढ़ावा देना है तथा इस संसार को प्रत्यक्षात नर्क में ढालना है.
कौन सा धर्म इन आवश्यकताओं को पूरा करता है? इस प्रश्न का विचार करते वक्त इस बात को याद रखना  चाहिए कि संत-महात्माओं के निर्माण के दिन अब बीत चुके हैं और संसार में कोई नया धर्म पैदा होनेवाला नहीं है. संसार को प्रचलित धर्मों में से ही किसी एक को चुनना होगा. इसलिए इस प्रश्न का विचार प्रचलित धर्मों तक ही सीमित रखना चाहिए.
और यह ध्यान रहे कि यह नया जगत पुराने से सर्वथा भिन्न है--  नए जगत को पुराने जगत कि अपेक्षा धर्म क़ी अत्यधिक जरुरत है.
एक प्रश्न है जिसका उत्तर प्रत्येक धर्म को जरुर देना चाहिए. शोषितों और पैरो तले कुचलों के लिए किस तरह क़ी मानसिक और नैतिक रहत पंहुचाता है? यदि वह ऐसा नहीं कर सकता हो तो उसका अंत ही होगा. क्या हिन्दू धर्म पिछड़े वर्गों, अछूत और  जन-जातियों के करोड़ों लोगों को कोई मानसिक और नैतिक राहत पंहुचाता है? निश्चित नहीं. क्या हिन्दू इन पिछड़े वर्गों, अचुत जाती और जन-जातियों से यह आशा रख सकते हैं क़ी बैगर किसी मानसिक और नैतिक राहत क़ी उम्मीद किये वे उनके हिन्दू धर्म को चिपके रहेंगे? इस तरह क़ी आशा रखना सर्वथा व्यर्थ होगा. हिन्दू धर्म ज्वालामुखी पर सवार हुआ है. आज वह ज्वालामुखी बुज़ा हुआ नजर आता है. लेकिन वह बुज़ा हुआ नहीं है. एक बार यह करोड़ों का शक्तिशाली समूह अपने पतन के बारे में सचेत हो जाएगा और यह समज जायेगा कि अधिकतर हिन्दू धर्म के सामाजिक दर्शन के कारण उनका पतन हुआ है, तब यह ज्वालामुखी फिर से फट पड़ेगा. रोमन साम्राज्य में फैले मुर्तिपुजन को ईसाई धर्मं द्वारा बहार फेंक दिए जाने कि बात यंहा याद आती है. जैसे ही लोगों को यह एहसास हुआ कि मुर्तिपुजन से उन्हें किसी तरह कि मानसिक और नैतिक राहत मिलनेवाली नहीं हैं, तो रोमन लोगों ने उसका त्याग किया और ईसाई धर्म को अपनाया. जो रोम में हुआ वही भारत में जरुर होगा ". 

Friday 6 January 2012

BHAGWATGITA

                                                              भगवतगीता


गीता  महाभारत  का एक भाग है.
जिस समय महासंघिको  का, जिन्हें बाद में महायानवादी  कहा  गया, उदय हुआ, उस समय भगवतगीता  का कंही पता भी नहीं था.
 गीता में जिन सिध्दान्तो की पुष्टि की गई है, वे प्रतिक्रांति के सिध्दांत  हैं जो प्रतिक्रांति की बाइबिल, अर्थात जैमिनी कृत पूर्वमीमांसा  में वर्णित है.
गीता  की रचना ब्रह्मसूत्र  के बाद की गई है.. ब्रह्मसूत्र बादरायण की रचना है. ब्रह्मसूत्र की रचना 500  ईसवी में हुई थी. 
गीता  पूर्व-मीमांसा के बाद की और बौद्ध धर्मं के बाद की रचना हैं.
सिध्दार्थ गौतम अपने स्थान पर खड़ा हुआ बोला --" मै इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ. युध्द से कभी किसी समस्या का हल नहीं होता. युध्द छेड़ देने से हमारे उद्येश की पूर्ति नहीं होगी. इससे एक दुसरे युध्द का बीजारोपण हो जायेगा. जो किसी की हत्या करता है, उसे कोई दूसरा हत्या करने वाला मिल जाता हैं, जो किसीको जीतता है उसे कोई दूसरा जितने वाला मिल जाता है; जो किसीको लुटता है उसे कोई दूसरा लुटने वाला मिल जाता है."  ( भगवान बुध्द और उनका धर्म -- पृष्ट , 24 ).   
भगवतगीता  का अध्ययन करने  पर सबसे पहली बात जो हमे मिलती है, वह यह कि इसमें युध्द को संगत ठहराया गया है. स्वयं अर्जुन  ने युध्द तथा संपत्ति के  लिए लोगों की  हत्या करने का विरोध किया. कृष्ण  ने युध्द में हत्याओं की दार्शनिक आधार पर पुष्टि की. यह  युध्द की यह दार्शनिक पुष्टि भगवतगीता  के अध्याय 2 के श्लोक 2 से 28 तक दी गई है. युध्द की दार्शनिक पुष्टि तर्क की दो कसोटीयों पर आधारित है. पहला तर्क यह है कि संसार नश्वर है तथा मनुष्य मृत्युधर्मी है. वस्तुओं का अंत होना निश्चित है. मनुष्य की मृत्यु निश्चित है. जो बुध्दिमान हैं, उनके लिए इस बात से क्या अंतर पड़ेगा कि मनुष्य की स्वाभाविक मृत्यु होती है  अथवा वह हिंसा के फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त करता है? जीवन अस्वाभाविक है, इस बात पर आंसू क्यों बहाए  जाए की  उसका अंत हो गया है? मृत्यु अनिवार्य हैं, फिर इस बात पर क्यों विचार किया जाए कि मृत्यु किस प्रकार हुई? दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए युध्द की आवश्यकता को सिध्द किया गया है  और यह सोचना भ्रम है कि  शरीर और आत्मा एक हैं. वे अलग-अलग हैं. वे केवल स्पष्ट रूप से अलग अलग ही नहीं, परन्तु वे दोनों अलग अलग इसलिए है कि शरीर नश्वर है,  जब कि आत्मा अमर और अविनाशी है. जब मृत्यु होती है तो शरीर का अंत हो जाता है. आत्मा का कभी भी विनाश नहीं होता. और आत्मा कभी भी नहीं मरती, यहाँ तक  कि वायु इसे सुखा नहीं सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, और हथियार इसे काट नहीं सकते. इसलिए यह कहना भूल हैं कि जब व्यक्ति मर जाता हैं, तो उसकी आत्मा भी मर जाती हैं. वास्तव में स्थिति यह हैं कि शरीर मर जाता हैं. उसकी आत्मा मृत शरीर को उसी प्रकार त्याग देती हैं, जैसे व्यक्ति अपने पुराने वस्त्रों को त्याग देता हैं -- वह नए वस्त्र धारण करता हैं तथा अपना जीवन बिताता हैं. चूँकि आत्मा कभी भी नहीं मरती हैं, अत: व्यक्ति की हत्या होने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए युध्द और हत्या-जनित पश्चाताप अथवा संकोच, यही भगवतगीता  का तर्क हैं.  
एक अन्य सिध्दांत जिसे भगवतगीता  में प्रस्तुत किया गया हैं, वह चातुर्वर्ण्य  की दार्शनिक पुष्टि हैं. निस्संदेह भगवतगीता  में बताया गया हैं कि चातुर्वर्ण्य  ईश्वर का सृजन है और इसलिए यह अति पवित्र हैं. परन्तु गीता में यह इस कारण वैध नही बताया गया हैं. इसके लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया गया है तथा उसे मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों के साथ जोड़ दिया गया हैं. भगवतगीता  में कहा गया है कि पुरुष के वर्ण का निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ है. परन्तु उसका निर्धारण मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों 
(भगवतगीता, 4 .13 ) के आधार पर किया जाता है.
भगवतगीता  में तीसरा सिध्दांत कर्म योग की दार्शनिक पृष्ठभूमि बताकर प्रस्तुत किया गया हैं. भगवतगीता के अनुसार कर्म मार्ग का अर्थ है मोक्ष के लिए  यज्ञ आदि संपन्न करना. भगवतगीता में कर्म योग का प्रतिपादन किया गया है और इस हेतु उन बातों का निराकरण किया गया हैं जो अनावश्यक रूप से कर्मयोग में पैदा ही गई हैं, जिन्होंने उसे ढक दिया है और विकृत कर दिया हैं. पहली बात हैं, अंधविश्वास. गीता का उद्येश कर्म योग की आवश्यक शर्त के रूप में  बुध्दि योग ( भगवतगीता, 2, 39 -53 ) के सिध्दांत का निरूपण कर उस अंधविश्वास को समाप्त करना हैं. यदि व्यक्ति स्थित प्रज्ञ, अर्थात संयत बुध्दि हो जाये तो कर्मकांड करना कोई गलत बात नहीं हैं. दूसरा दोष यह है कि कर्मकांड के पीछे स्वार्थ निहित था और यही स्वार्थ कर्म- सपादन के लिए प्रेरणा रहा. इस दोष के निराकरण के लिए भगवतगीता में अनासक्ति, अर्थात कर्म के फल की इच्छा किये बिना कर्म  ( भगवतगीता, 2 , 47 ) के संपादन  के सिध्दांत का प्रतिपादन किया गया है. गीता में कर्म मार्ग ( भगवतगीता, 2, 47 ) की पुष्टि यह तर्क प्रस्तुत करके की गई है कि अगर इसके मूल में बुध्दि योग हो और कर्म के कारण किसी फल की इच्छा की भावना न हो, तो कर्म कांड के सिध्दांत में कोई त्रुटि नही है. इसी क्रम में अन्य सिध्दान्तो के संबंध में  विचार करना उचित ही है कि गीता  में दार्शनिक आधार पर इनकी पुष्टि किस प्रकार की गई है, जो पहले अस्तित्व में ही नहीं थे.                                     









































Wednesday 4 January 2012

THE FUTURE OF INDIA

There is a big threat not from out side the India, but from the inside India since last two thousands years. The 80 percent population of  NAGA RACE BUDDHIST PEOPLE  were made SLAVES by the Constitutional force of  MANUSMRUTI  and made forcefully HINDUS. When MUSLIMS DYNASTIES ruled  for nearly one thousands years in India, the ten percent of SHUDRAS PEOPLE embraced ISLAM, but their SOCIAL STRUCTURE were remained as earlier as in the Hindu society, only they were not called SHUDRAS in ISLAM. When East India company and The BRITISH Government ruled India the ten percent SHUDRAS including the UNTOUCHABLES embraced CHRISTIANITY, and they were called HARIJANS and their SOCIAL STRUCTURE remained as earlier as they were in the past. After TOTAL INDEPENDENCE to INDIA the remaining Scheduled Caste, Scheduled Tribes People tried  their FATE of Freedom, Equality, Justice  and Fraternity in India, but what happened, the NEWS Papers and the TV Channels are the witnesses of ATROCITIES, INJUSTICE on them and their WOMEN.    
Therefore the SLAVES of India SC, and ST People are still  fighting for their existence and freedom in India.   
You all remember that after second world war, when the British Government declared to hand over the Indians the Democracy of their country to them, their was a big threat to the India from the Indians only, and the result was India was divided in two parts (1) Pakistan and (2) Hindustan. You may also remember that when Dr. B.R.Ambedkar (the father of constitution of India) asked for a SEPARATE SETTLEMENT in the year 1935 for the 20 percent population of Scheduled Caste in India, Mahatma Gandhi opposed Dr. Ambedkar and went on a fast for 21 days till death. There was a big hawk in the British India and a threat to the life of Dr. Ambedkar and his people. Any how with a great loss of freedom, equality, and justice development of welfare and happiness to the the 20 percent of Scheduled Caste Dr. Ambedkar agreed to the proposal of Joint Electorate of Mahatma Gandhi. You also know that in 1935 the India got the first Political Independence of forming their ministry by election. But what happened the President of Congress Party Mahatma Gandhi deceived the promise of POONA PACT. And still it is in practice by the Congress Party people and its Government after demise of Mahatma Gandhi and after Independence also. In the Constitution of India it is promised that the Central Government and all the State Governments shall safeguards the fundamental Rights of Scheduled Caste, Scheduled Tribes and other Minorities, but it is not safeguarded.
 This is the direct THREAT to the Scheduled Caste, Scheduled Tribes and Minorities people in inside the India to fight for to achieve the GOAL of FREEDOM in the form of a NEW NATION, where they can hand over to their coming New Generations to live in the PEACE for their Development of WELFARE and HAPPINESS. So that their new generations shall not be the PRAY of the dirty Politics of Rule and Divide of the Hindu Mentality and their HINDUTVAWAD.
It is true that in the World there are the CHRISTIAN Countries, MUSLIM Countries, COMMUNIST Countries and BUDDHIST Countries also. But it does not mean that WE the Indians also make the India as a HINDU Country. Keep in the MIND that this a very dangerous thought WE the Indians are possessing, practicing and developing. This is not a RIGHTEOUS THOUGHT. Because last two thousand years we are practicing the same dangerous thought and what happened before British Government the India was divided in 627 Parts and were ruled by the HINDUS and MUSLIMS.
 I am very much afraid of that WE should not lose our SOVEREIGNTY and FREEDOM of our COUNTRY which we got with a very much great difficulties after two thousands years. There is a very big debate that if we lose our Democracy, then what will be the next government in India? The answer is COMMUNISM. But this is not true for your information please. Because Russia-USSR tried the Communism and the Communism is failed in that country, and Russia-USSR divided in 13 countries. The CHINA is ruling by Communism Government- a DICTATOR GOVERNMENT. The people of CHINA have no Democratic FUNDAMENTAL RIGHTS of Freedom, Equality, Justice and Fraternity. If they fight for their freedom they are killed. The bloodshed can not be stopped in CHINA as long as the Communism dictatorship is remained in China. Certainly a day will come the CHINA PEOPLE shall have their Democracy in their Country. 
NOW WHAT WILL BE THE FUTURE OF INDIA ?
My answer is ---it is fully depend on the HINDU MENTALITY PEOPLE how they treat with these SC, ST, and MINORITIES Population? like their BROTHERS and SISTERS or their ENEMIES? 

Monday 2 January 2012

THREAT TO THE MANKIND

                                  THREAT  TO  THE  MANKIND

No doubts that there are thousands of high Intellectuals in the World including India. All these Intellectuals have their own philosophy and methodology to solve the problems of their Political, Economical, Social, Educational
and etc. They have their own religion to solve these problems. The almighty God is also with them to solve their problems. 
But the problems are as they were without any solution and a very big new THREAT has come to the mankind  and its name is TERRORISM.
The question is why there is a threat to the human generation?
And the answer is very simple that all the Intellectuals of this world including India have gone their own directions, to never come back again on one COMMON PLATFORM.
COMMON PLATFORM is nothing but FRATERNITY.
The FRATERNITY is fully absent among the all Intellectuals.
The World has a majority of foolish people, because they are not Intellectuals, they are illiterate-uneducated poor, have no FREEDOM, EQUALITY and JUSTICE. The majority are WOMEN since last two thousands years. The WOMEN of the world including India are tortured, abused and killed daily.
As long as the WOMEN of the world have no their fundamental rights of  FREEDOM, EQUALITY and JUSTICE, there shall be no PEACE in the world.
Without WOMEN the world is desert. The Women are the blossom flowers of the men family-garden.
If all the intellectuals want to solve their problems then they should have the priority of to EDUCATE the all WOMEN of the world including India.
WOMEN are the best award of this Universe-Nature.  
The Intellectuals are in minorities because they are not foolish. And  their most bad luck is that their Intelligentsia do not allow them to unite themselves for a simple common cause also. They are most failure in their life-- because they have not eradicated  HATE, ANGER and LUST.