सभी धर्मों कि कसौटी
(१)--" समाज को अपनी एकता को बनाए रखने के लिए या तो कानून का बंधन स्वीकारना पड़ेगा या फिर नैतिकता का. दोनों के अभाव में समाज निश्चय ही टुकडे-टुकडे हो जायेगा. सभी प्रकार के समाज में कानून की भूमिका अत्यल्प होती है. उसका उद्देश होता है ( कानून तोड़नेवाले ) अल्पसंख्यको को सामाजिक अनुशासन की सीमा में रखना. बहुसंख्यको को मात्र अपना सामाजिक जीवन बिताने के लिए नैतिकता के प्रामाणय और अधिकार पर छोड़ दिया जाता है, नहीं छोड़ना ही पड़ता है. इसलिए धर्मं को नैतिकता के अर्थ में प्रत्येक समाज के अनुशासन का तत्व बने रहना चाहिए.
(२)-- धर्म की उपर्युक्त परिभाषा विज्ञान के अनुकूल होनी चाहिए. यदि धर्म विज्ञान की कसोटी पर खरा नहीं उतरता है तो वह अपने महत्व को खो कर हंसी का विषय बन सकता है और जिवानुशासन के तत्व-रूप में न केवल वह अपनी शक्ति खो बैठता है, बल्कि समय के साथ विछिन्न होकर समाज से लुप्त भी हो सकता है. दुसरे शब्दों में, धर्म को अगर वास्तव में कार्यशील होना है, तो उसे तर्क और विवेक पर आधारीत होना चाहिए. इसका ही दूसरा नाम विज्ञान है.
(३)-- सामाजिक नैतिकता की संहिता के रूप में ठहरने के लिए धर्म को चाहिए कि वह समता, स्वंतंत्रता और बंधुता के बुनियादी तत्वों को मान्य करे. समाज जीवन के इन तीन तत्वों का स्वीकार किये बगैर कोई भी धर्म जिन्दा नहीं रह सकता.
(४)-- धर्म ने निर्धनता को पवित्र नहीं मान्यता देना चाहिए. अथवा उसका उदात्तीकरण नहीं करना चाहिए. धनवानों के लिए निर्धन बनना चाहे संतोषदायी हो भी. परन्तु निर्धनता कभी संतोषदायी नहीं होती. निर्धनता को संतोषदायी घोषित करना धर्म का विपर्यास है. बुराई और अपराध को बढ़ावा देना है तथा इस संसार को प्रत्यक्षात नर्क में ढालना है.
कौन सा धर्म इन आवश्यकताओं को पूरा करता है? इस प्रश्न का विचार करते वक्त इस बात को याद रखना चाहिए कि संत-महात्माओं के निर्माण के दिन अब बीत चुके हैं और संसार में कोई नया धर्म पैदा होनेवाला नहीं है. संसार को प्रचलित धर्मों में से ही किसी एक को चुनना होगा. इसलिए इस प्रश्न का विचार प्रचलित धर्मों तक ही सीमित रखना चाहिए.
और यह ध्यान रहे कि यह नया जगत पुराने से सर्वथा भिन्न है-- नए जगत को पुराने जगत कि अपेक्षा धर्म क़ी अत्यधिक जरुरत है.
एक प्रश्न है जिसका उत्तर प्रत्येक धर्म को जरुर देना चाहिए. शोषितों और पैरो तले कुचलों के लिए किस तरह क़ी मानसिक और नैतिक रहत पंहुचाता है? यदि वह ऐसा नहीं कर सकता हो तो उसका अंत ही होगा. क्या हिन्दू धर्म पिछड़े वर्गों, अछूत और जन-जातियों के करोड़ों लोगों को कोई मानसिक और नैतिक राहत पंहुचाता है? निश्चित नहीं. क्या हिन्दू इन पिछड़े वर्गों, अचुत जाती और जन-जातियों से यह आशा रख सकते हैं क़ी बैगर किसी मानसिक और नैतिक राहत क़ी उम्मीद किये वे उनके हिन्दू धर्म को चिपके रहेंगे? इस तरह क़ी आशा रखना सर्वथा व्यर्थ होगा. हिन्दू धर्म ज्वालामुखी पर सवार हुआ है. आज वह ज्वालामुखी बुज़ा हुआ नजर आता है. लेकिन वह बुज़ा हुआ नहीं है. एक बार यह करोड़ों का शक्तिशाली समूह अपने पतन के बारे में सचेत हो जाएगा और यह समज जायेगा कि अधिकतर हिन्दू धर्म के सामाजिक दर्शन के कारण उनका पतन हुआ है, तब यह ज्वालामुखी फिर से फट पड़ेगा. रोमन साम्राज्य में फैले मुर्तिपुजन को ईसाई धर्मं द्वारा बहार फेंक दिए जाने कि बात यंहा याद आती है. जैसे ही लोगों को यह एहसास हुआ कि मुर्तिपुजन से उन्हें किसी तरह कि मानसिक और नैतिक राहत मिलनेवाली नहीं हैं, तो रोमन लोगों ने उसका त्याग किया और ईसाई धर्म को अपनाया. जो रोम में हुआ वही भारत में जरुर होगा ".
(१)--" समाज को अपनी एकता को बनाए रखने के लिए या तो कानून का बंधन स्वीकारना पड़ेगा या फिर नैतिकता का. दोनों के अभाव में समाज निश्चय ही टुकडे-टुकडे हो जायेगा. सभी प्रकार के समाज में कानून की भूमिका अत्यल्प होती है. उसका उद्देश होता है ( कानून तोड़नेवाले ) अल्पसंख्यको को सामाजिक अनुशासन की सीमा में रखना. बहुसंख्यको को मात्र अपना सामाजिक जीवन बिताने के लिए नैतिकता के प्रामाणय और अधिकार पर छोड़ दिया जाता है, नहीं छोड़ना ही पड़ता है. इसलिए धर्मं को नैतिकता के अर्थ में प्रत्येक समाज के अनुशासन का तत्व बने रहना चाहिए.
(२)-- धर्म की उपर्युक्त परिभाषा विज्ञान के अनुकूल होनी चाहिए. यदि धर्म विज्ञान की कसोटी पर खरा नहीं उतरता है तो वह अपने महत्व को खो कर हंसी का विषय बन सकता है और जिवानुशासन के तत्व-रूप में न केवल वह अपनी शक्ति खो बैठता है, बल्कि समय के साथ विछिन्न होकर समाज से लुप्त भी हो सकता है. दुसरे शब्दों में, धर्म को अगर वास्तव में कार्यशील होना है, तो उसे तर्क और विवेक पर आधारीत होना चाहिए. इसका ही दूसरा नाम विज्ञान है.
(३)-- सामाजिक नैतिकता की संहिता के रूप में ठहरने के लिए धर्म को चाहिए कि वह समता, स्वंतंत्रता और बंधुता के बुनियादी तत्वों को मान्य करे. समाज जीवन के इन तीन तत्वों का स्वीकार किये बगैर कोई भी धर्म जिन्दा नहीं रह सकता.
(४)-- धर्म ने निर्धनता को पवित्र नहीं मान्यता देना चाहिए. अथवा उसका उदात्तीकरण नहीं करना चाहिए. धनवानों के लिए निर्धन बनना चाहे संतोषदायी हो भी. परन्तु निर्धनता कभी संतोषदायी नहीं होती. निर्धनता को संतोषदायी घोषित करना धर्म का विपर्यास है. बुराई और अपराध को बढ़ावा देना है तथा इस संसार को प्रत्यक्षात नर्क में ढालना है.
कौन सा धर्म इन आवश्यकताओं को पूरा करता है? इस प्रश्न का विचार करते वक्त इस बात को याद रखना चाहिए कि संत-महात्माओं के निर्माण के दिन अब बीत चुके हैं और संसार में कोई नया धर्म पैदा होनेवाला नहीं है. संसार को प्रचलित धर्मों में से ही किसी एक को चुनना होगा. इसलिए इस प्रश्न का विचार प्रचलित धर्मों तक ही सीमित रखना चाहिए.
और यह ध्यान रहे कि यह नया जगत पुराने से सर्वथा भिन्न है-- नए जगत को पुराने जगत कि अपेक्षा धर्म क़ी अत्यधिक जरुरत है.
एक प्रश्न है जिसका उत्तर प्रत्येक धर्म को जरुर देना चाहिए. शोषितों और पैरो तले कुचलों के लिए किस तरह क़ी मानसिक और नैतिक रहत पंहुचाता है? यदि वह ऐसा नहीं कर सकता हो तो उसका अंत ही होगा. क्या हिन्दू धर्म पिछड़े वर्गों, अछूत और जन-जातियों के करोड़ों लोगों को कोई मानसिक और नैतिक राहत पंहुचाता है? निश्चित नहीं. क्या हिन्दू इन पिछड़े वर्गों, अचुत जाती और जन-जातियों से यह आशा रख सकते हैं क़ी बैगर किसी मानसिक और नैतिक राहत क़ी उम्मीद किये वे उनके हिन्दू धर्म को चिपके रहेंगे? इस तरह क़ी आशा रखना सर्वथा व्यर्थ होगा. हिन्दू धर्म ज्वालामुखी पर सवार हुआ है. आज वह ज्वालामुखी बुज़ा हुआ नजर आता है. लेकिन वह बुज़ा हुआ नहीं है. एक बार यह करोड़ों का शक्तिशाली समूह अपने पतन के बारे में सचेत हो जाएगा और यह समज जायेगा कि अधिकतर हिन्दू धर्म के सामाजिक दर्शन के कारण उनका पतन हुआ है, तब यह ज्वालामुखी फिर से फट पड़ेगा. रोमन साम्राज्य में फैले मुर्तिपुजन को ईसाई धर्मं द्वारा बहार फेंक दिए जाने कि बात यंहा याद आती है. जैसे ही लोगों को यह एहसास हुआ कि मुर्तिपुजन से उन्हें किसी तरह कि मानसिक और नैतिक राहत मिलनेवाली नहीं हैं, तो रोमन लोगों ने उसका त्याग किया और ईसाई धर्म को अपनाया. जो रोम में हुआ वही भारत में जरुर होगा ".
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