भगवतगीता
गीता महाभारत का एक भाग है.
जिस समय महासंघिको का, जिन्हें बाद में महायानवादी कहा गया, उदय हुआ, उस समय भगवतगीता का कंही पता भी नहीं था.
गीता में जिन सिध्दान्तो की पुष्टि की गई है, वे प्रतिक्रांति के सिध्दांत हैं जो प्रतिक्रांति की बाइबिल, अर्थात जैमिनी कृत पूर्वमीमांसा में वर्णित है.
गीता की रचना ब्रह्मसूत्र के बाद की गई है.. ब्रह्मसूत्र बादरायण की रचना है. ब्रह्मसूत्र की रचना 500 ईसवी में हुई थी.
गीता पूर्व-मीमांसा के बाद की और बौद्ध धर्मं के बाद की रचना हैं.
सिध्दार्थ गौतम अपने स्थान पर खड़ा हुआ बोला --" मै इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ. युध्द से कभी किसी समस्या का हल नहीं होता. युध्द छेड़ देने से हमारे उद्येश की पूर्ति नहीं होगी. इससे एक दुसरे युध्द का बीजारोपण हो जायेगा. जो किसी की हत्या करता है, उसे कोई दूसरा हत्या करने वाला मिल जाता हैं, जो किसीको जीतता है उसे कोई दूसरा जितने वाला मिल जाता है; जो किसीको लुटता है उसे कोई दूसरा लुटने वाला मिल जाता है." ( भगवान बुध्द और उनका धर्म -- पृष्ट , 24 ).
भगवतगीता का अध्ययन करने पर सबसे पहली बात जो हमे मिलती है, वह यह कि इसमें युध्द को संगत ठहराया गया है. स्वयं अर्जुन ने युध्द तथा संपत्ति के लिए लोगों की हत्या करने का विरोध किया. कृष्ण ने युध्द में हत्याओं की दार्शनिक आधार पर पुष्टि की. यह युध्द की यह दार्शनिक पुष्टि भगवतगीता के अध्याय 2 के श्लोक 2 से 28 तक दी गई है. युध्द की दार्शनिक पुष्टि तर्क की दो कसोटीयों पर आधारित है. पहला तर्क यह है कि संसार नश्वर है तथा मनुष्य मृत्युधर्मी है. वस्तुओं का अंत होना निश्चित है. मनुष्य की मृत्यु निश्चित है. जो बुध्दिमान हैं, उनके लिए इस बात से क्या अंतर पड़ेगा कि मनुष्य की स्वाभाविक मृत्यु होती है अथवा वह हिंसा के फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त करता है? जीवन अस्वाभाविक है, इस बात पर आंसू क्यों बहाए जाए की उसका अंत हो गया है? मृत्यु अनिवार्य हैं, फिर इस बात पर क्यों विचार किया जाए कि मृत्यु किस प्रकार हुई? दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए युध्द की आवश्यकता को सिध्द किया गया है और यह सोचना भ्रम है कि शरीर और आत्मा एक हैं. वे अलग-अलग हैं. वे केवल स्पष्ट रूप से अलग अलग ही नहीं, परन्तु वे दोनों अलग अलग इसलिए है कि शरीर नश्वर है, जब कि आत्मा अमर और अविनाशी है. जब मृत्यु होती है तो शरीर का अंत हो जाता है. आत्मा का कभी भी विनाश नहीं होता. और आत्मा कभी भी नहीं मरती, यहाँ तक कि वायु इसे सुखा नहीं सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, और हथियार इसे काट नहीं सकते. इसलिए यह कहना भूल हैं कि जब व्यक्ति मर जाता हैं, तो उसकी आत्मा भी मर जाती हैं. वास्तव में स्थिति यह हैं कि शरीर मर जाता हैं. उसकी आत्मा मृत शरीर को उसी प्रकार त्याग देती हैं, जैसे व्यक्ति अपने पुराने वस्त्रों को त्याग देता हैं -- वह नए वस्त्र धारण करता हैं तथा अपना जीवन बिताता हैं. चूँकि आत्मा कभी भी नहीं मरती हैं, अत: व्यक्ति की हत्या होने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए युध्द और हत्या-जनित पश्चाताप अथवा संकोच, यही भगवतगीता का तर्क हैं.
एक अन्य सिध्दांत जिसे भगवतगीता में प्रस्तुत किया गया हैं, वह चातुर्वर्ण्य की दार्शनिक पुष्टि हैं. निस्संदेह भगवतगीता में बताया गया हैं कि चातुर्वर्ण्य ईश्वर का सृजन है और इसलिए यह अति पवित्र हैं. परन्तु गीता में यह इस कारण वैध नही बताया गया हैं. इसके लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया गया है तथा उसे मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों के साथ जोड़ दिया गया हैं. भगवतगीता में कहा गया है कि पुरुष के वर्ण का निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ है. परन्तु उसका निर्धारण मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों
(भगवतगीता, 4 .13 ) के आधार पर किया जाता है.
भगवतगीता में तीसरा सिध्दांत कर्म योग की दार्शनिक पृष्ठभूमि बताकर प्रस्तुत किया गया हैं. भगवतगीता के अनुसार कर्म मार्ग का अर्थ है मोक्ष के लिए यज्ञ आदि संपन्न करना. भगवतगीता में कर्म योग का प्रतिपादन किया गया है और इस हेतु उन बातों का निराकरण किया गया हैं जो अनावश्यक रूप से कर्मयोग में पैदा ही गई हैं, जिन्होंने उसे ढक दिया है और विकृत कर दिया हैं. पहली बात हैं, अंधविश्वास. गीता का उद्येश कर्म योग की आवश्यक शर्त के रूप में बुध्दि योग ( भगवतगीता, 2, 39 -53 ) के सिध्दांत का निरूपण कर उस अंधविश्वास को समाप्त करना हैं. यदि व्यक्ति स्थित प्रज्ञ, अर्थात संयत बुध्दि हो जाये तो कर्मकांड करना कोई गलत बात नहीं हैं. दूसरा दोष यह है कि कर्मकांड के पीछे स्वार्थ निहित था और यही स्वार्थ कर्म- सपादन के लिए प्रेरणा रहा. इस दोष के निराकरण के लिए भगवतगीता में अनासक्ति, अर्थात कर्म के फल की इच्छा किये बिना कर्म ( भगवतगीता, 2 , 47 ) के संपादन के सिध्दांत का प्रतिपादन किया गया है. गीता में कर्म मार्ग ( भगवतगीता, 2, 47 ) की पुष्टि यह तर्क प्रस्तुत करके की गई है कि अगर इसके मूल में बुध्दि योग हो और कर्म के कारण किसी फल की इच्छा की भावना न हो, तो कर्म कांड के सिध्दांत में कोई त्रुटि नही है. इसी क्रम में अन्य सिध्दान्तो के संबंध में विचार करना उचित ही है कि गीता में दार्शनिक आधार पर इनकी पुष्टि किस प्रकार की गई है, जो पहले अस्तित्व में ही नहीं थे.
गीता महाभारत का एक भाग है.
जिस समय महासंघिको का, जिन्हें बाद में महायानवादी कहा गया, उदय हुआ, उस समय भगवतगीता का कंही पता भी नहीं था.
गीता में जिन सिध्दान्तो की पुष्टि की गई है, वे प्रतिक्रांति के सिध्दांत हैं जो प्रतिक्रांति की बाइबिल, अर्थात जैमिनी कृत पूर्वमीमांसा में वर्णित है.
गीता की रचना ब्रह्मसूत्र के बाद की गई है.. ब्रह्मसूत्र बादरायण की रचना है. ब्रह्मसूत्र की रचना 500 ईसवी में हुई थी.
गीता पूर्व-मीमांसा के बाद की और बौद्ध धर्मं के बाद की रचना हैं.
सिध्दार्थ गौतम अपने स्थान पर खड़ा हुआ बोला --" मै इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ. युध्द से कभी किसी समस्या का हल नहीं होता. युध्द छेड़ देने से हमारे उद्येश की पूर्ति नहीं होगी. इससे एक दुसरे युध्द का बीजारोपण हो जायेगा. जो किसी की हत्या करता है, उसे कोई दूसरा हत्या करने वाला मिल जाता हैं, जो किसीको जीतता है उसे कोई दूसरा जितने वाला मिल जाता है; जो किसीको लुटता है उसे कोई दूसरा लुटने वाला मिल जाता है." ( भगवान बुध्द और उनका धर्म -- पृष्ट , 24 ).
भगवतगीता का अध्ययन करने पर सबसे पहली बात जो हमे मिलती है, वह यह कि इसमें युध्द को संगत ठहराया गया है. स्वयं अर्जुन ने युध्द तथा संपत्ति के लिए लोगों की हत्या करने का विरोध किया. कृष्ण ने युध्द में हत्याओं की दार्शनिक आधार पर पुष्टि की. यह युध्द की यह दार्शनिक पुष्टि भगवतगीता के अध्याय 2 के श्लोक 2 से 28 तक दी गई है. युध्द की दार्शनिक पुष्टि तर्क की दो कसोटीयों पर आधारित है. पहला तर्क यह है कि संसार नश्वर है तथा मनुष्य मृत्युधर्मी है. वस्तुओं का अंत होना निश्चित है. मनुष्य की मृत्यु निश्चित है. जो बुध्दिमान हैं, उनके लिए इस बात से क्या अंतर पड़ेगा कि मनुष्य की स्वाभाविक मृत्यु होती है अथवा वह हिंसा के फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त करता है? जीवन अस्वाभाविक है, इस बात पर आंसू क्यों बहाए जाए की उसका अंत हो गया है? मृत्यु अनिवार्य हैं, फिर इस बात पर क्यों विचार किया जाए कि मृत्यु किस प्रकार हुई? दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए युध्द की आवश्यकता को सिध्द किया गया है और यह सोचना भ्रम है कि शरीर और आत्मा एक हैं. वे अलग-अलग हैं. वे केवल स्पष्ट रूप से अलग अलग ही नहीं, परन्तु वे दोनों अलग अलग इसलिए है कि शरीर नश्वर है, जब कि आत्मा अमर और अविनाशी है. जब मृत्यु होती है तो शरीर का अंत हो जाता है. आत्मा का कभी भी विनाश नहीं होता. और आत्मा कभी भी नहीं मरती, यहाँ तक कि वायु इसे सुखा नहीं सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, और हथियार इसे काट नहीं सकते. इसलिए यह कहना भूल हैं कि जब व्यक्ति मर जाता हैं, तो उसकी आत्मा भी मर जाती हैं. वास्तव में स्थिति यह हैं कि शरीर मर जाता हैं. उसकी आत्मा मृत शरीर को उसी प्रकार त्याग देती हैं, जैसे व्यक्ति अपने पुराने वस्त्रों को त्याग देता हैं -- वह नए वस्त्र धारण करता हैं तथा अपना जीवन बिताता हैं. चूँकि आत्मा कभी भी नहीं मरती हैं, अत: व्यक्ति की हत्या होने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए युध्द और हत्या-जनित पश्चाताप अथवा संकोच, यही भगवतगीता का तर्क हैं.
एक अन्य सिध्दांत जिसे भगवतगीता में प्रस्तुत किया गया हैं, वह चातुर्वर्ण्य की दार्शनिक पुष्टि हैं. निस्संदेह भगवतगीता में बताया गया हैं कि चातुर्वर्ण्य ईश्वर का सृजन है और इसलिए यह अति पवित्र हैं. परन्तु गीता में यह इस कारण वैध नही बताया गया हैं. इसके लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया गया है तथा उसे मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों के साथ जोड़ दिया गया हैं. भगवतगीता में कहा गया है कि पुरुष के वर्ण का निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ है. परन्तु उसका निर्धारण मनुष्य के स्वाभाविक और जन्मजात गुणों
(भगवतगीता, 4 .13 ) के आधार पर किया जाता है.
भगवतगीता में तीसरा सिध्दांत कर्म योग की दार्शनिक पृष्ठभूमि बताकर प्रस्तुत किया गया हैं. भगवतगीता के अनुसार कर्म मार्ग का अर्थ है मोक्ष के लिए यज्ञ आदि संपन्न करना. भगवतगीता में कर्म योग का प्रतिपादन किया गया है और इस हेतु उन बातों का निराकरण किया गया हैं जो अनावश्यक रूप से कर्मयोग में पैदा ही गई हैं, जिन्होंने उसे ढक दिया है और विकृत कर दिया हैं. पहली बात हैं, अंधविश्वास. गीता का उद्येश कर्म योग की आवश्यक शर्त के रूप में बुध्दि योग ( भगवतगीता, 2, 39 -53 ) के सिध्दांत का निरूपण कर उस अंधविश्वास को समाप्त करना हैं. यदि व्यक्ति स्थित प्रज्ञ, अर्थात संयत बुध्दि हो जाये तो कर्मकांड करना कोई गलत बात नहीं हैं. दूसरा दोष यह है कि कर्मकांड के पीछे स्वार्थ निहित था और यही स्वार्थ कर्म- सपादन के लिए प्रेरणा रहा. इस दोष के निराकरण के लिए भगवतगीता में अनासक्ति, अर्थात कर्म के फल की इच्छा किये बिना कर्म ( भगवतगीता, 2 , 47 ) के संपादन के सिध्दांत का प्रतिपादन किया गया है. गीता में कर्म मार्ग ( भगवतगीता, 2, 47 ) की पुष्टि यह तर्क प्रस्तुत करके की गई है कि अगर इसके मूल में बुध्दि योग हो और कर्म के कारण किसी फल की इच्छा की भावना न हो, तो कर्म कांड के सिध्दांत में कोई त्रुटि नही है. इसी क्रम में अन्य सिध्दान्तो के संबंध में विचार करना उचित ही है कि गीता में दार्शनिक आधार पर इनकी पुष्टि किस प्रकार की गई है, जो पहले अस्तित्व में ही नहीं थे.
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